२१ अगस्त, १९५७

  

       मां, काफी समयसे कुछ ऐसा महसूस होता है कि हमारी प्रवृत्तियोंमें सामान्य चेतना कुछ नीचे गिर गयी है, विशेषतः, जबसे आश्रम इतना अधिक बढ़ गया है । इसका क्या कारण है और हम इसका क्या इलाज कर सकते हैं?

 

क्या तुम आश्रमकी सभी प्रवृत्तियोंकी बात कर रहे हों या केवल खेल- .. आश्रमकी सभी प्रवृत्तिया?

 

       बहुत अधिकको तो मैं जानता नहीं, मां, जिनको मैं देखता हू उनमें ।

 

(लवि चुप्पीके बाद) बात कुछ जटिल-सी है, मैं समझानेकी कोशिश करती हूं!

 

 

एक लंबे अर्मेतक आश्रम व्यक्तियोंका केवल एक जमघट था, प्रत्येक व्यक्ति किसी चीजका प्रतिनिधित्व करता था, पर एक व्यष्टिके तौरपर ही, उनमें कोई सामूहिक संगठन नहीं था । यह शतरंज-पटलपर रखे पृथक्-

 

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पृथक् प्यादोंकी तरह था -- उनमें केवल ऊपरसे देखनेवाली एकता थीं -- या यूं कहें कि यह एक ऊपरी तथ्य था कि लोग एक स्थानपर एक साथ रहते थे और उनमें कुछ आदतें समान थीं -- वे भी बहुत नहीं, बस कुछेक ही । प्रत्येक व्यक्ति अपनी योग्यताके अनुसार विकास करता था -- या नहीं करता था और दूसरोंके साथ उसका संबंध कम-से-कम था । इस प्रकार, इस विचित्र समूहका गठन करनेवाले व्यक्तियोंके मूल्यके अनुरूप यह कहा जा सकता था कि उसका एक सामान्य मूल्य था, पर था बहुत बदलता हुआ और उसमें कोई सामूहिक सत्व नहीं था । यह स्थिति बहुत लैबे-- बहुत ही लंबे समयतक बनी रही । ओर यह तो केवल अभी हाल ही मे एक सामूहिक सत्त्वकी आवश्यकता अनुभव होनी शुरू हुई -- यह जरूरी नह। है कि यह आश्रमतक ही सीमित हो, बल्कि उन सबको मी अपने अंदर समाविष्ट किये हुए है जो अपने-आपको श्रीअरविंदका शिष्य कहते हैं (मेरा मतलब है : भौतिक रूपसे नहीं, बल्कि अपनी चेतनामें), और उनकी शिक्षा- के अनुसार जीवन बितानेका प्रयत्न करते है । उन सबमें एक ऐसे सर्व- सामान्य जीवनकी आवश्यकता जाग्रत हो गयी है जो पूर्णतया भौतिक परि- स्थितिपर ही आधारित न हों, बल्कि एक गहनतर सत्यका प्रतिनिधित्व करता हों, और जबसे अतिमानसिक चेतना और शक्तिका अवतरण हुआ है त्बसे यह और भी प्रबल हो उठी है । यह एक ऐसे समाजका आरंभ है जिसे श्रीअरविदने अतिमानसिक या विज्ञानमय समाज कहा है... । निश्चय ही, उन्होंने यह कहा है कि इसके लिये समुदायके व्यक्तियोंमें, स्वयं भी, अतिमानसिक चेतना होनी चाहिये; परंतु इस व्यक्तिगत पूर्णतातक पहुंचे बिना -- बल्कि इस पूर्णतासे बहुत दूर रहते हुए भी -- जिसे हम ''सामूहिक व्यक्तित्व'' कह सकते हैं उसके निर्माणके लिये एक आंतरिक प्रयत्न मी साथ-साथ चलता रहा है । सच्ची एकताकी, एक गहनतर संबंधकी आवश्यकता अनुभव होती रही है और उसकी प्राप्तिके लिये प्रयल किया गया है ।

 

       इससे कुछ.. कठिनाइयां उठ खड़ी हुई, क्योंकि पहलेका सरव इतना अधिक वैयक्तिक था कि कुछ प्रवृत्तियोंमें खलल पड़ा, मेरा मतानब यह नही है कि भौतिक रूपमें पड़ा, क्योंकि चीजे उससे बहुत भिन्न नही है जैसी पहले थीं, खलल कुछ गहरी चेतनामें पड़ा । और सबसे बढ़कर यह (इसी बातपर मै जोर देना चाहती हू) कि इसने कुछ हदतक एक आंतरिक परस्पर निर्भरता पैदा कर दी है जिसने, स्वभावत: ही, वैयक्तिक स्तरको -- जरा -- नीचा कर दिया है, सिवाय उन लोगोंके जिन्होंने, हम कह सकने है, पहले ही समतल करनेकी प्रवृत्तिका मुकाबला करने लायक पर्याप्त सक्षम

 

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आंतरिक उपलब्धि पा ली है । इसीसे ऐसी छाप पड़ती है कि सामान्य स्तर नीचे गिर गया है, पर यह बात ठीक नहीं है । सामान्य स्तर पहलेसे अधिक ऊंचा है, परंतु वैयक्तिक स्तर कइयोंमें नीचे आ गया है, वे लोग भी, जो किसी एक या दूसरी उपलब्धिके योग्य थे, ऐसा अनुभव करने लगे है मानों उनपर एक भार आ पड़ा है, जो पहले नहीं था, वे नहीं जानते कि ऐसा क्यों हुआ, यह भार परस्पर-निर्भरताका परिणाम है । पर यह केवल एक अस्थायी प्रभाव है जो उलटे, सुधारकी ओर, _क बहुत स्पष्ट सामान्य प्रगतिकी ओर लें जायगा ।

 

        स्वभावत:, यदि प्रत्येक व्यक्ति सचेतन होता और इस प्रकारके समतलनके प्रभावके आगे झुकनेके बजाय इसका मुकाबला करता, ताकि वह समष्टिसे आनेवाले तत्वों, प्रभावों, प्रवाहोंको रूपांतरित कर सकता, उन्हें परिवर्तित एवं उन्नत कर सकता तो समूचा समुदाय ही वेगके साथ उच्च- तर चेतनामें उठ जाता और उससे बहुत आगे बढ़ जाता जहां व्यक्ति पहले था!

 

       मैंने जब तुमसे प्रयत्न करनेकी अधिकाधिक अनिवार्य आवश्यकताके बारेमें कहा था (विस्तारपूर्वक समझाये बिना), तो मेरा लक्ष्य यही था । और निश्चित रूपसे मेरा यह इरादा भी था कि मैं तुम्हें एक दिन यह समझाऊं कि तुम जो व्यक्तिगत प्रयत्न करोगे उससे केवल व्यक्तिगत उन्नति ही न होगी, बल्कि यू कह सकते हैं कि, वह फैलेगी या उसके अत्यंत महत्त्वपूर्ण सामूहिक परिणाम होंगे । परंतु मैंने महीनोंतक कुछ नहीं कहा क्योंकि मै चाह रही थी कि व्यक्तिगत चेतना सामूहिक व्यक्तित्वकी आवश्यकताको स्वीकार करने, बल्कि कह सकती हूं कि उसे माननेके लिये ही सही, तैयार हों जाय । यही चीज है जो तुम्हें अब बतायी जानी चाहिये । इस ऊपरसे देखनेवाली उतारका, जो केवल अकेला नहीं है, दूसरा कोई कारण नहीं । यह विकासकी सर्पिल गति है जिसका यह तकाजा है कि व्यक्ति उपलब्ध स्थितिसे दूर चला जाय, ताकि वह उपलब्धि न केवल अधिक विस्तृत, बल्कि अधिक ऊंची भी हो जाय । यदि इसमें प्रत्येक व्यक्ति चेतन रूपसे और शुभ भावनाके साथ सहयोग दे तो यह विकास कही अधिक द्रुतगतिसे आगे बढ़ेगा ।

 

        यह एक अनिवार्य आवश्यकता है यदि तुम चाहते हो कि आश्रमका यह जीवन ज़ीने लायक हो । प्रत्येक वस्तु जो उन्नति नहीं करती आवश्यक द्वपसे अवनत होने लगती है और नष्ट हो जाती है । यदि आश्रमको बने रहना है तो उसे अपनी चेतनामें विकास करना होगा ओर एक सजीव समष्टि बनना होगा । तो यह बात है ।

 

 विकासके सर्पिल चक्करमें इस समय हम उपलब्धिकी उस रेरवासे कुछ दूर चले गये है जहां हम कुछ वर्ष पूर्व थे, पग्तु हम दुबारा उसपर लौट आयेंगे, पर पहलेसे ऊंचे स्तरपर ।

 

        तो यह है उतर ।

 

       कुछ गतिविधियां ऐसी हो सकती है जो बाहरी तौरसे उसके विपरीत मालूम दें जो कुछ मैंने अभी कहा है, पर वह.. ऐसा ते'। सदा ही होता है । कारण प्रत्येक बार जब तुम कोई चीज चरितार्थ करना चाहते हों तो पहली कठिनाई जो तुम्हारे सामने आती है वह है विरोध, उन सब वस्तुओंका विरोध जो पहले सक्रिय नहीं थीं और अब विरोध करनेके रसिये उठ खड़ी हुई है । वह सब जो इस परिवर्तनको स्वीकार करना नही चाहता, स्वभावत, भड़क उठता और विद्रोह करता है । पर इसका कुछ महत्व नहीं । यह वैसी ही चीज है जैसी व्यक्तिमें होती है । जब तुम प्रगति करना चग्हते हों, जिस कठिनाईको जीतना चाहते हों वह तुम्हारी चेतनामें दसगुना अधिक महत्त्वपूर्ण और बलवती हो उठती है । वहां केवल डटे रहनेकी बात है, बस । यह गुजर जायगी ।

 

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